कोहनीर हीरे से तराशा
कोहनीर हीरे से तराशा हुआ ये हसीन बदन
इतना खूबसूरत है की गले से लगाने को जी चाहता है,
तेरे सुर्ख होंटों में तेर्क्ति है ये रंगीन शराब
जिसे पे कर भहक जाने को जी चाहता है,
नरम सीने में धडकते हैं वह नाज़ुक तूफ़ान
जिन की लहरों में उतर जाने को जी चाहता है,
तुम से क्या रिश्ता है, कब से है, यह मालूम नहीं,
लेकिन इस हुस्न पे मर जाने को जी चाहता है,
रख ले कल के लिए यह दूसरी पाज़ेब दिल,
कल इस बज़्ज़्म में फिर आने को जी चाहता है,
बे-खबर सोये हैं वह लूट के नींदें मेरी,
जज़्बा-इ-दिल पे तरस खाने को जी चाहता है,
कब से खामोश हो ओ जाने जहाँ कुछ तो बोलो,
क्या अभी भी सितम और ढाने को जी चाहता है,
छोड कर तुम को कहाँ चैन मिलेगा हम को,
यहीं जीने यहीं मर जाने को जी चाहता है,
अपने हाथों से संवरा है तुम्हें क़ुदरत ने,
देख केर देखते रह जाने को जी चाहता है,
नूर ही नूर झलकता है हसीं चेहरे से,
बस यहीं सजदे में गिर जाने को जी चाहता है,
मेरे दमन को कोई और न छू पायेगा ,
तुम को छू कर कसम यह खाने को जी चाहता है,
चाँद चेहरा है तेरा और नज़र है बिजली,
एक एक जलवे पे मर जाने को जी चाहता है,
चाँद की हस्ती ही क्या सामने जब सूरज हो,
आप के क़दमों में मिट जाने को जी चाहता है…